Page 13 - Ankur Vol 2
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मैं और मेरी पररस्थिततयााँ
1 क्या थी मैं, क्या हो र्ई और क्या होऊाँ र्ी मैं ?
सुख भरी बदरी थी पर अब दुुःख भरी मैं हो र्ई हाँ |
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घूमती सखखयााँ थी मेरी ओर जो चारों तरफ़,
जश्न मनता था जहााँ,ककलकाररयााँ थी र्ूाँजती,
आज परिाई भी मेरी देखकर िे भार्तीं,
हाय! अब मैं क्या कहाँ?क्या थी और क्या क्या हो र्ई?
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2 मैं खेलती थी, क ू दती थी , मस्त रहती थी सदा,
क्या नशा था, क्या कफज़ा थी और कै सी थी अदा?
तततमलयों-सी हर क ु सुम पर थी सदा मैं भार् जाती,
कक ं तु मेरे तोि िाले पंख अपनों ने यहााँ,
अब कहााँ उि करके जाऊाँ ,और क्या हैं लालसा?
क्या कहाँ , क्या हो र्ई और क्या होऊाँ र्ी मैं ?
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3 मैं कभी उम्मीद न थी, िोिती अपने िर्र में,
हर पराये को मैं अपना थी समझती हर सफर में,
आज अपनों ने भी मुझको ना उम्मीद कर ददया,
मससककयााँ ही आज मेरी आस बन कर रह र्ई हैं,
ददग में मैं क्या कहाँ? क्या हो र्ई और क्या होऊाँ र्ी मैं ?
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4 मससक–मससक कर जीिन जीना था मुझको भाता नहीं,
आज दहतैर्षी अपना कोई, कभी पूिने आता नहीं,
अब मशकायत क्या कऱू ाँ , बोल मन ककससे कऱू ाँ ?
हार जाऊाँ ,बैठ जाऊाँ , जजंदर्ी की जंर् में?
हारकर दहम्मत नहीं, है बैठना-रोना यहााँ,
मुजश्कलों को रौंदकर, उठना-पहाँचना है िहााँ,
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हार माने,भीख मााँर्े, मुजश्कलें मुझसे जहााँ|
खड्र् की हाँ धार मैं, जो पत्थरों को चीर दे,
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िीर बाला हाँ िही ,जो शिु को शमशीर दे | नीलम सौंखला (हहन्दी अध्यावपका)
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