Page 19 - Ankur Vol 2
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न जाने कब से घर में चूवहा ही नहीं जला था,                     थिछता का मंत्र

                 चूवहा भी तो मााँ के  आाँसुओं से ही बुझा था....
                                                                    चारों ओर र्ंदर्ी फै ली,
                 कफर मुन्ने को िो बेचारी हलिा कहााँ से खखलाती,
                                                                    क ू िे -  करकट का अंबार।
                 अपने जजर्र के  ट ु किे को रोता भी,
                                                                    यह तो है बाहरी  र्ंदर्ी
                 कै से देख पाती...                                  कर लो तुम   इसका उपचार ।।
                                                                               मंि स्ििता  का अपनाओ,
                 अपनी मजबूरी नन्हें मन को मााँ कै से समझाती,
                                                                               स्िस्थ , सबल जीिन का दान ।
                 या कफर फालतू में मुन्ने पर क्यों झुाँझलाती...?
                                                                                      दूर करो र्ंदर्ी, बच्चो,
                 हलिे की बात िो कहानी में टालती रही,
                                                                                     करो देश भर का कवयार् ।।
                 जब तक िो सोया नहीं बस पानी उबालती रही...|
                                                                     दूर र्ंदर्ी होने से ,
                                                              th
                                             िरुर् र्ुलबानी (7 -I)   खुमशयों  का संसार बसेर्ा ।
                                                                    बस्ती अपनी सुंदर होर्ी ,
                                                                    िायु , देह , मन शुद्ध रहेर्ा ।।

                                                                                                       th
                                                                                             ऋवर्ष (7  -F)



                  भारतीय सैतनकों को समवपगत क ु ि पाँजक्तयााँ            यदद मेरे पंख होते तो









                                                               यदद मेरे पंख होते तो,
                     मोहब्बत की दास्तानें बहत सुनी मैंने,
                                             ु
                                                               तमाम दूररयााँ
                      मोहब्बत-ए-मुवक सुन कर हाँ हैरान।
                                                 ू
                                                               जमीन से आसमान की,
                 इश्क देखा भी,इश्क सुना भी, इश्क ककया भी।
                                                               घर से इस जहााँ के
                      न जाने कै से होता होर्ा ये उलफतें
                                                               खेत और खमलहान की |
                                 दहन्दुस्तान।।
                                                                  मुझे एिरेष्ट भी आसान लर्ता,
                   सुनी है मीरा की दीिानर्ी कान्हा क े मलए,
                                                               बादलों का आसरा होता,
                           मर्र िे तो थे भर्िान ।
                                                               मेरे नीचे होता ताजमहल
                    मोहब्बतें-हस्न की भी देखी एक ममसाल,
                             ु
                                                               मेरी बााँहों में नददयों का ककनारा होता|       11
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